छेड़ हर वक़्त की नहीं जाती
रोज़ का रूठना नहीं जाता
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जो कुछ इशारे होते हैं सब देखता हूँ मैं
क्या दुआ रोज़-ए-हश्र की माँगें
जो जो मज़े किए हैं ज़बाँ से मैं क्या कहूँ
फ़िक्र यही है हर घड़ी ग़म यही सुब्ह ओ शाम है
तिरे आगे अदू को नामा-बर मारा तो क्या मारा
मैं न कहता था कि बहकाएँगे तुम को दुश्मन
हिलती है ज़ुल्फ़ जुम्बिश-ए-गर्दन के साथ साथ
कहते हैं सुन के माजरा मेरा
ज़ाए नहीं होती कभी तदबीर किसी की
महफ़िल में आते जाते हैं इंसाँ नए नए
फ़िराक़ में तो सताती है आरज़ू-ए-विसाल
हुए नुमूद जो पिस्ताँ तो शर्म खा के कहा