मंज़ूर क्या है ये भी तो खुलता नहीं सबब
मिलता तो है वो हम से मगर कुछ रुका हुआ
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है ख़ुशी इंतिज़ार की हर दम
तुम से कुछ कहने को था भूल गया
सदमे यूँ ग़ैर पर नहीं आते
तुझ से ही छुपाऊँगा ग़म अपना
इक बात लिखी है क्या ही मैं ने
कू-ए-जानाँ में गर अब जाएँ भी तो क्या देखें
मैं न कहता था कि बहकाएँगे तुम को दुश्मन
हक़ बात तो ये है कि उसी बुत के वास्ते
दरबाँ से आप कहते थे कुछ मेरे बाब में
आए भी वो चले भी गए याँ किसे ख़बर
कहिए गर रब्त मुद्दई से है
जो सरगुज़िश्त अपनी हम कहेंगे कोई सुनेगा तो क्या करेंगे