कू-ए-जानाँ में गर अब जाएँ भी तो क्या देखें
कोई रौज़न न रहा बन गई दीवार नई
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जब तो मैं हूँ आह में ऐसा असर पैदा करूँ
किस क़दर हिज्र में बेहोशी है
ज़ाए नहीं होती कभी तदबीर किसी की
ख़ुश्बू वो पसीने की तिरी याद न आ जाए
दुश्मन से और होतीं बहुत बातें प्यार की
जो कुछ इशारे होते हैं सब देखता हूँ मैं
है ख़ुशी इंतिज़ार की हर दम
हुए नुमूद जो पिस्ताँ तो शर्म खा के कहा
क्यूँ करते हो ए'तिबार मेरा
बे-साख़्ता निगाहें जो आपस में मिल गईं
हाल-ए-दिल तुम से मिरी जाँ न कहा कौन से दिन
क्या किसी से किसी का हाल कहें