ज़मीन जब भी हुई कर्बला हमारे लिए
तो आसमान से उतरा ख़ुदा हमारे लिए
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हज़ार राह चले फिर वो रहगुज़र आई
कूचा-ए-इश्क़ से कुछ ख़्वाब उठा कर ले आए
पलट सकूँ ही न आगे ही बढ़ सकूँ जिस पर
साथी से
तू बू-ए-गुल है और परेशाँ हुआ हूँ मैं
बड़ी आरज़ू थी हम को नए ख़्वाब देखने की
वो ख़्वाब ख़्वाब फ़ज़ा-ए-तरब नहीं आई
सुब्ह-ए-चमन में एक यही आफ़्ताब था
ये और बात कि इस अहद की नज़र में हूँ
सुख़न में सहल नहीं जाँ निकाल कर रखना
अज़ाब आए थे ऐसे कि फिर न घर से गए
बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स