सुब्ह-ए-चमन में एक यही आफ़्ताब था
इस आदमी की लाश को एज़ाज़ से उठा
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मैं ज़िंदा हूँ
वो ख़्वाब ख़्वाब फ़ज़ा-ए-तरब नहीं आई
अल्फ़ाज़
अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए
मिट्टी था मैं ख़मीर तिरे नाज़ से उठा
हर आवाज़ ज़मिस्तानी है हर जज़्बा ज़िंदानी है
अगर हों कच्चे घरोंदों में आदमी आबाद
तुम हम-सफ़र हुए तो हुई ज़िंदगी अज़ीज़
साथी से
ऐ मेरे ख़्वाब आ मिरी आँखों को रंग दे
कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी सो मैं ने जीवन वार दिया
ख़ुर्शीद मिसाल शख़्स कल शाम