शिकस्ता-हाल सा बे-आसरा सा लगता है
ये शहर दिल से ज़ियादा दुखा सा लगता है
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दुआ दुआ चेहरा
बोले नहीं वो हर्फ़ जो ईमान में न थे
कमाल-ए-आदमी की इंतिहा है
एक मैं भी हूँ कुलह-दारों के बीच
अब तो फ़िराक़-ए-सुब्ह में बुझने लगी हयात
तू बू-ए-गुल है और परेशाँ हुआ हूँ मैं
आओ तुम ही करो मसीहाई
अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए
ये कैसी बिछड़ने की सज़ा है
दरूद पढ़ते हुए उस की दीद को निकलें