शायद कि ख़ुदा में और मुझ में
इक जस्त का और फ़ासला है
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कूचा-ए-इश्क़ से कुछ ख़्वाब उठा कर ले आए
अगर हों कच्चे घरोंदों में आदमी आबाद
ये और बात कि इस अहद की नज़र में हूँ
आइडियल
आओ तुम ही करो मसीहाई
जवानी क्या हुई इक रात की कहानी हुई
ख़्वाब ही ख़्वाब कब तलक देखूँ
इंसान हो किसी भी सदी का कहीं का हो
कोई धुन हो मैं तिरे गीत ही गाए जाऊँ
वहशतें कैसी हैं ख़्वाबों से उलझता क्या है
तू अपनी आवाज़ में गुम है मैं अपनी आवाज़ में चुप
वो ख़्वाब ख़्वाब फ़ज़ा-ए-तरब नहीं आई