ख़्वाब ही ख़्वाब कब तलक देखूँ
काश तुझ को भी इक झलक देखूँ
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कूचा-ए-इश्क़ से कुछ ख़्वाब उठा कर ले आए
दरूद पढ़ते हुए उस की दीद को निकलें
वीरान सराए का दिया है
बना गुलाब तो काँटे चुभा गया इक शख़्स
हवा के दोश पे रक्खे हुए चराग़ हैं हम
हज़ार राह चले फिर वो रहगुज़र आई
निगार-ए-सुब्ह की उम्मीद में पिघलते हुए
आईना
कमाल-ए-आदमी की इंतिहा है
अहल-ए-दिल के दरमियाँ थे 'मीर' तुम
कुछ दिन तो बसो मिरी आँखों में
साथी से