मैं आईना हूँ
और हर आने वाले को वही चेहरा दिखाता हूँ
जो मेरे सामने लाए
मगर अब थक गया हूँ
चाहता हूँ
कोई मुझ को इस तरह देखे
कि चकना-चूर हो जाऊँ
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इंसान हो किसी भी सदी का कहीं का हो
अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए
खा गया इंसाँ को आशोब-ए-मआश
रौशनी आधी इधर आधी उधर
अब तो फ़िराक़-ए-सुब्ह में बुझने लगी हयात
सुख़न में सहल नहीं जाँ निकाल कर रखना
तू बू-ए-गुल है और परेशाँ हुआ हूँ मैं
मैं एक से किसी मौसम मैं रह नहीं सकता
आईना
नुमू
हँसो तो रंग हूँ चेहरे का रोओ तो चश्म-ए-नम में हूँ
आँख से दूर सही दिल से कहाँ जाएगा