खा गया इंसाँ को आशोब-ए-मआश
आ गए हैं शहर बाज़ारों के बीच
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हम ने खुलने न दिया बे-सर-ओ-सामानी को
दोस्तो जश्न मनाओ कि बहार आई है
मिरे ख़ुदा मुझे वो ताब-ए-नय-नवाई दे
सुख़न में सहल नहीं जाँ निकाल कर रखना
कोई और तो नहीं है पस-ए-ख़ंजर-आज़माई
दिल ही थे हम दुखे हुए तुम ने दुखा लिया तो क्या
जवानी क्या हुई इक रात की कहानी हुई
जब मिला हुस्न भी हरजाई तो उस बज़्म से हम
मुझ से मिरा कोई मिलने वाला
बाहर का धन आता जाता असल ख़ज़ाना घर में है
दुआ दुआ चेहरा
निगार-ए-सुब्ह की उम्मीद में पिघलते हुए