जब मिला हुस्न भी हरजाई तो उस बज़्म से हम
इश्क़-ए-आवारा को बेताब उठा कर ले आए
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बड़ी आरज़ू थी हम को नए ख़्वाब देखने की
कोई और तो नहीं है पस-ए-ख़ंजर-आज़माई
कुछ तो बताओ शाइर-ए-बेदार क्या हुआ
शिकस्ता-हाल सा बे-आसरा सा लगता है
सुख़न में सहल नहीं जाँ निकाल कर रखना
वहशत उसी से फिर भी वही यार देखना
साहिब-ए-मेहर-ओ-वफ़ा अर्ज़-ओ-समा क्यूँ चुप है
मैं कैसे जियूँ गर ये दुनिया हर आन नई तस्वीर न हो
हँसो तो रंग हूँ चेहरे का रोओ तो चश्म-ए-नम में हूँ
नींद आँखों से उड़ी फूल से ख़ुश्बू की तरह
दिल ही थे हम दुखे हुए तुम ने दुखा लिया तो क्या