दोस्तो जश्न मनाओ कि बहार आई है
फूल गिरते हैं हर इक शाख़ से आँसू की तरह
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मोहब्बत
जिस को मिलना नहीं फिर उस से मोहब्बत कैसी
अगर हों कच्चे घरोंदों में आदमी आबाद
मैं उस को भूल गया हूँ वो मुझ को भूल गया
रौशनी आधी इधर आधी उधर
वो रात बे-पनाह थी और मैं ग़रीब था
सुब्ह-ए-चमन में एक यही आफ़्ताब था
अज़ाब आए थे ऐसे कि फिर न घर से गए
वीरान सराए का दिया है
मैं तन्हा था मैं तन्हा हूँ
पलट सकूँ ही न आगे ही बढ़ सकूँ जिस पर
मैं एक से किसी मौसम मैं रह नहीं सकता