दरूद पढ़ते हुए उस की दीद को निकलें
तो सुब्ह फूल बिछाए सबा हमारे लिए
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वो रात बे-पनाह थी और मैं ग़रीब था
अब तो फ़िराक़-ए-सुब्ह में बुझने लगी हयात
अब तू हो किसी रंग में ज़ाहिर तो मुझे क्या
फिर इस तरह कभी सोया न इस तरह जागा
कल मातम बे-क़ीमत होगा आज उन की तौक़ीर करो
वो ख़्वाब ख़्वाब फ़ज़ा-ए-तरब नहीं आई
शिकस्त-ए-जाँ से सिवा भी है कार-ए-फ़न क्या क्या
जब मिला हुस्न भी हरजाई तो उस बज़्म से हम
ऐसी तेज़ हवा और ऐसी रात नहीं देखी
मैं ये किस के नाम लिक्खूँ जो अलम गुज़र रहे हैं
शायद इस राह पे कुछ और भी राही आएँ