अहल-ए-दिल के दरमियाँ थे 'मीर' तुम
अब सुख़न है शोबदा-कारों के बीच
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सुब्ह-ए-चमन में एक यही आफ़्ताब था
अब तो मिल जाओ हमें तुम कि तुम्हारी ख़ातिर
मैं जिस में खो गया हूँ मिरा ख़्वाब ही तो है
वो रात बे-पनाह थी और मैं ग़रीब था
साथी से
कुछ दिन तो बसो मिरी आँखों में
आँख से दूर सही दिल से कहाँ जाएगा
हज़ार राह चले फिर वो रहगुज़र आई
ख़याल-ओ-ख़्वाब हुई हैं मोहब्बतें कैसी
गुज़रो न इस तरह कि तमाशा नहीं हूँ मैं
ख़्वाब ही ख़्वाब कब तलक देखूँ
अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए