कौन सी वो शम्अ' थी जिस का मैं परवाना हुआ
कौन सी वो शम्अ' थी जिस का मैं परवाना हुआ
और फिर लौ भी लगी ऐसी कि दीवाना हुआ
साक़ी-ए-सर-मस्त से जब तक कि लेने को बढ़ूँ
हाथ से गिरते ही चकना-चूर पैमाना हुआ
दिल हरीम-ए-नाज़ से ले कर तो हम निकले मगर
हो गया आलम कुछ ऐसा सब से बेगाना हुआ
ख़ैर थी उल्फ़त में दिल ने रंग कुछ बदला न था
अब तमाशा देखिएगा वो भी दीवाना हुआ
हम ने जाने क्या कहा लोगों ने क्या समझा उसे
सरगुज़िश्त-ए-दर्द-ए-दिल थी जिस का अफ़्साना हुआ
फ़ैज़ साक़ी ने बदल दी सूरत-ए-दिल और ही
पहले पैमाना था पैमाना से मय-ख़ाना हुआ
मेरे लब तक आते आते क्यूँ छलक जाता है 'शौक़'
जाम-ए-रंगीं साग़र-ए-मुल या कि पैमाना हुआ
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