हवेलियाँ भी हैं कारें भी कार-ख़ाने भी
बस आदमी की कमी देखता हूँ शहरों में
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ज़मीं को ऐ ख़ुदा वो ज़लज़ला दे
सीने पर रख हिजरत का पत्थर चुप-चाप
फलदार था तो गाँव उसे पूजता रहा
मौसम सूखे पेड़ गिराने वाला था
किसी किसी को थमाता है चाबियाँ घर की
समुंदर में खड़े हो रो रहे हो
सावन में घबरा जाता है
सफ़र में धूप है तो साएबान भी होगा
एक न इक दीवार सरकती रहती है
बर्फ़ से लड़ता था मेरे पास पानी क्यूँ नहीं
तू जब घर से चला जाता है