किसी किसी को थमाता है चाबियाँ घर की
ख़ुदा हर एक को अपना पता नहीं देता
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कोई ख़ुशबू न फूल हूँ मैं तो
सफ़र में धूप है तो साएबान भी होगा
समुंदर आँख से ओझल ज़रा नहीं होता
एक न इक दीवार सरकती रहती है
ज़मीं को ऐ ख़ुदा वो ज़लज़ला दे
समुंदर में खड़े हो रो रहे हो
फलदार था तो गाँव उसे पूजता रहा
सावन में घबरा जाता है
बर्फ़ से लड़ता था मेरे पास पानी क्यूँ नहीं
ख़ुदा की बे-रुख़ी पर रो रही है
मैं रेत का महल हूँ मिरे पासबाँ दरख़्त