उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था
मुकम्मल हो चुके थे जिस घड़ी अर्ज़-ओ-समा बन कर
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फ़र्क़ क्या मक़्तल में और गुलज़ार में
पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया
नेक-ओ-बद की जिसे ख़बर ही नहीं
कभी न जाएगा आशिक़ से देख-भाल का रोग
पहलू-ओ-पुश्त-ओ-सीना-ओ-रुख़्सार आइना
निकले हैं घर से देखने को लोग माह-ए-ईद
वाइ'ज़ को लअ'न-तअ'न की फ़ुर्सत है किस तरह
करेंगे ज़ुल्म दुनिया पर ये बुत और आसमाँ कब तक
भेज तो दी है ग़ज़ल देखिए ख़ुश हों कि न हों
दिलवाइए बोसा ध्यान भी है
अहल-ए-दुनिया बावले हैं बावलों की तू न सुन
बहुत से ज़मीं में दबाए गए हैं