फ़र्क़ क्या मक़्तल में और गुलज़ार में
ढाल में हैं फूल फल तलवार में
Gulzar
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बाल रुख़्सारों से जब उस ने हटाए तो खुला
बहुत से ज़मीं में दबाए गए हैं
जाता रहा क़ल्ब से सारी ख़ुदाई का इश्क़
निकाली जाए किस तरकीब से तक़रीर की सूरत
मर चुका मैं तो नहीं इस से मुझे कुछ हासिल
चुभेंगे ज़ीरा-हा-ए-शीशा-ए-दिल दस्त-ए-नाज़ुक में
पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू
होती न शरीअ'त में परस्तिश कभी ममनूअ
है अपने क़त्ल की दिल-ए-मुज़्तर को इत्तिलाअ
पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया
सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय
ख़ुदा के फ़ज़्ल से हम हक़ पे हैं बातिल से क्या निस्बत