इक अदना सा पर्दा है इक अदना सा तफ़ावुत
मख़्लूक़ में माबूद में बंदे में ख़ुदा में
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भेज तो दी है ग़ज़ल देखिए ख़ुश हों कि न हों
ख़ाक कर डालें अभी चाहें तो मय-ख़ाने को हम
करेंगे ज़ुल्म दुनिया पर ये बुत और आसमाँ कब तक
जो दिल मिरा नहीं मुझे उस दिल से क्या ग़रज़
खिलाया परतव-ए-रुख़्सार ने क्या गुल समुंदर में
दिल में तीर-ए-इश्क़ है और फ़र्क़ पर शमशीर-ए-इश्क़
मेरी इज़्ज़त बढ़ गई इक पान में
बहुत दिन दर्स-ए-उल्फ़त में कटे हैं
ख़ुदा के फ़ज़्ल से हम हक़ पे हैं बातिल से क्या निस्बत
ग़रीब आदमी को ठाट पादशाही का
बाज़ी पे दिल लगा है कोई दिल-लगी नहीं
मैं चुप रहूँ तो गोया रंज-ओ-ग़म-ए-निहाँ हूँ