पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू
मैं सुर्ख़ हूँ तुम सुर्ख़ ज़मीं सुर्ख़ ज़माँ सुर्ख़
Javed Akhtar
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हज़ार शर्म करो वस्ल में हज़ार लिहाज़
देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में
दिए जाएँगे कब तक शैख़-साहिब कुफ़्र के फ़तवे
बदली हुई है चर्ख़ की रफ़्तार आज-कल
सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय
पौ फटते ही 'रियाज़' जहाँ ख़ुल्द बन गया
मख़्लूक़ को तुम्हारी मोहब्बत में ऐ बुतो
किसी की किसी को मोहब्बत नहीं है
जाता रहा क़ल्ब से सारी ख़ुदाई का इश्क़
दिल में तीर-ए-इश्क़ है और फ़र्क़ पर शमशीर-ए-इश्क़
जिस तरह दो-जहाँ में ख़ुदा का नहीं शरीक
कभी न जाएगा आशिक़ से देख-भाल का रोग