होती न शरीअ'त में परस्तिश कभी ममनूअ
गर पहले भी बुतख़ानों में होते सनम ऐसे
Rahat Indori
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मैं चुप रहूँ तो गोया रंज-ओ-ग़म-ए-निहाँ हूँ
दिल में तीर-ए-इश्क़ है और फ़र्क़ पर शमशीर-ए-इश्क़
अगर लोहे के गुम्बद में रखेंगे अक़रबा उन को
बहुत दिन दर्स-ए-उल्फ़त में कटे हैं
जिस तरह दो-जहाँ में ख़ुदा का नहीं शरीक
निकाली जाए किस तरकीब से तक़रीर की सूरत
मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
दिलवाइए बोसा ध्यान भी है
दिए जाएँगे कब तक शैख़-साहिब कुफ़्र के फ़तवे
है अपने क़त्ल की दिल-ए-मुज़्तर को इत्तिलाअ
देखो तो ज़रा ग़ज़ब ख़ुदा का
जाता रहा क़ल्ब से सारी ख़ुदाई का इश्क़