हवा में जब उड़ा पर्दा तो इक बिजली सी कौंदी थी
ख़ुदा जाने तुम्हारा परतव-ए-रुख़्सार था क्या था
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कुछ तबीअत आज-कल पाता हूँ घबराई हुई
भेज तो दी है ग़ज़ल देखिए ख़ुश हों कि न हों
फ़र्क़ क्या मक़्तल में और गुलज़ार में
कभी न जाएगा आशिक़ से देख-भाल का रोग
मुद्दत से इश्तियाक़ है बोस-ओ-कनार का
निकले हैं घर से देखने को लोग माह-ए-ईद
मुझ को क्या फ़ाएदा गर कोई रहा मेरे ब'अद
जो चार आदमियों में गुनाह करते हैं
करेंगे ज़ुल्म दुनिया पर ये बुत और आसमाँ कब तक
न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था
बाल रुख़्सारों से जब उस ने हटाए तो खुला
कुछ तो कमी हो रोज़-ए-जज़ा के अज़ाब में