कुछ तो कमी हो रोज़-ए-जज़ा के अज़ाब में
अब से पिया करेंगे मिला कर गुलाब में
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बदली हुई है चर्ख़ की रफ़्तार आज-कल
नए ग़म्ज़े नए अंदाज़ नज़र आते हैं
किस तरह कर दिया दिल-ए-नाज़ुक को चूर-चूर
उसी दिन से मुझे दोनों की बर्बादी का ख़तरा था
देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में
मेरी इज़्ज़त बढ़ गई इक पान में
मुद्दत से इश्तियाक़ है बोस-ओ-कनार का
मुझ को दुनिया की तमन्ना है न दीं का लालच
जिस तरह दो-जहाँ में ख़ुदा का नहीं शरीक
कुछ तबीअत आज-कल पाता हूँ घबराई हुई
ठहर जाओ बोसे लेने दो न तोड़ो सिलसिला
मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता