मुद्दत से इश्तियाक़ है बोस-ओ-कनार का
गर हुक्म हो शुरूअ' करे अपना काम हिर्स
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कुछ तबीअत आज-कल पाता हूँ घबराई हुई
जो चार आदमियों में गुनाह करते हैं
बहुत से ज़मीं में दबाए गए हैं
ज़बाँ है बे-ख़बर और बे-ज़बाँ दिल
हज़ार शर्म करो वस्ल में हज़ार लिहाज़
अहल-ए-दुनिया बावले हैं बावलों की तू न सुन
होती न शरीअ'त में परस्तिश कभी ममनूअ
मैं चुप कम रहा और रोया ज़ियादा
पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू
मैं चुप रहूँ तो गोया रंज-ओ-ग़म-ए-निहाँ हूँ
मुझ को दुनिया की तमन्ना है न दीं का लालच
मर चुका मैं तो नहीं इस से मुझे कुछ हासिल