मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
उड़ाओ ख़ाक सरसर बन के या बाद-ए-सबा बन कर
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सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय
वाइ'ज़ को लअ'न-तअ'न की फ़ुर्सत है किस तरह
अहल-ए-दुनिया बावले हैं बावलों की तू न सुन
जो दिल मिरा नहीं मुझे उस दिल से क्या ग़रज़
दिल पुकारा फँस के कू-ए-यार में
कुछ तबीअत आज-कल पाता हूँ घबराई हुई
किसी की किसी को मोहब्बत नहीं है
महफ़िल में ग़ैर ही को न हर बार देखना
ठहर जाओ बोसे लेने दो न तोड़ो सिलसिला
ख़ुदा के फ़ज़्ल से हम हक़ पे हैं बातिल से क्या निस्बत
जो चार आदमियों में गुनाह करते हैं
अगर लोहे के गुम्बद में रखेंगे अक़रबा उन को