न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था
किसी के बस में था मजबूर था लाचार था क्या था
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ख़ाक कर डालें अभी चाहें तो मय-ख़ाने को हम
है अपने क़त्ल की दिल-ए-मुज़्तर को इत्तिलाअ
ख़ुदा के फ़ज़्ल से हम हक़ पे हैं बातिल से क्या निस्बत
करेंगे ज़ुल्म दुनिया पर ये बुत और आसमाँ कब तक
मुझे जब मार ही डाला तो अब दोनों बराबर हैं
वो ही आसान करेगा मिरी दुश्वारी को
मिरी क़िस्मत लिखी जाती थी जिस दिन मैं अगर होता
सुनते सुनते वाइ'ज़ों से हज्व-ए-मय
कुछ तो कमी हो रोज़-ए-जज़ा के अज़ाब में
बद-क़िस्मतों को गर हो मयस्सर शब-ए-विसाल
क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को
वक़्त पर आते हैं न जाते हैं