क्यूँ उजाड़ा ज़ाहिदो बुत-ख़ाना-ए-आबाद को
मस्जिदें काफ़ी न होतीं क्या ख़ुदा की याद को
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दिलवाइए बोसा ध्यान भी है
मुझ को दुनिया की तमन्ना है न दीं का लालच
अब कोई तिरा मिस्ल नहीं नाज़-ओ-अदा में
महफ़िल में ग़ैर ही को न हर बार देखना
मुतकब्बिर न हो ज़रदार बड़ी मुश्किल है
देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में
देखो तो ज़रा ग़ज़ब ख़ुदा का
करेंगे ज़ुल्म दुनिया पर ये बुत और आसमाँ कब तक
जो दिल मिरा नहीं मुझे उस दिल से क्या ग़रज़
इक अदना सा पर्दा है इक अदना सा तफ़ावुत
कुछ तो कमी हो रोज़-ए-जज़ा के अज़ाब में
निकले हैं घर से देखने को लोग माह-ए-ईद