जाँ घुल चुकी है ग़म में इक तन है वो भी मोहमल
मअ'नी नहीं हैं बिल्कुल मुझ में अगर बयाँ हूँ
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नर्गिसीं आँख भी है अबरू-ए-ख़मदार के पास
वक़्त पर आते हैं न जाते हैं
देखने वाले ये कहते हैं किताब-ए-दहर में
हज़ार शर्म करो वस्ल में हज़ार लिहाज़
करेंगे ज़ुल्म दुनिया पर ये बुत और आसमाँ कब तक
दिल में तीर-ए-इश्क़ है और फ़र्क़ पर शमशीर-ए-इश्क़
जो चार आदमियों में गुनाह करते हैं
कुछ तबीअत आज-कल पाता हूँ घबराई हुई
मैं चुप रहूँ तो गोया रंज-ओ-ग़म-ए-निहाँ हूँ
न आया कर के व'अदा वस्ल का इक़रार था क्या था