एक इसी बात का था डर उस को
मुझ में इंकार की भी हिम्मत थी
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किस हुनर के मुज़ाहिरे में हो
शब ढली उतर गया फिर इश्क़ का नशा मिरा
ऐसा जीना भी क्या है मर मर के
जान ये इंतिज़ार कैसा है
हवाओं के मुक़ाबिल हूँ
ख़्वाब जो अच्छे बुरे थे
उस की बेचैनी बढ़ाना चाहती हूँ
क़त्ल करना तो इस को ठीक नहीं
वो जो पहला था अपना इश्क़ वही
सर्द रिश्तों की बर्फ़ पिघली है
चलते चलते अक्सर रुक कर सोचा भी