मैं ज़हर पीता रहा ज़िंदगी के हाथों से
ये और बात है मेरा बदन हरा न हुआ
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हवा बहुत है मता-ए-सफ़र सँभाल के रख
तिरी गली में तमाशा किए ज़माना हुआ
मायूसी की बर्फ़ पड़ी थी लेकिन मौसम सर्द न था
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
फिर मिरे सर पे कड़ी धूप की बौछार गिरी
न सवाल-ए-जाम न ज़िक्र-ए-मय उसी बाँकपन से चले गए
अहद-ए-जुनूँ में बैठे बैठे जो ग़ज़लें लिख डाली थीं
ये वो बस्ती ही नहीं
पिया करते हैं छुप कर शैख़ जी रोज़ाना रोज़ाना
अपनी तन्हाई की पलकों को भिगो लूँ पहले
मुसाफ़िरों का कभी ए'तिबार मत करना
तुम आ गए हो ख़ुदा का सुबूत है ये भी