कितने दिनों के प्यासे होंगे यारो सोचो तो
शबनम का क़तरा भी जिन को दरिया लगता है
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फिर मिरे सर पे कड़ी धूप की बौछार गिरी
मैं पिछली रात क्या जाने कहाँ था
पिया करते हैं छुप कर शैख़ जी रोज़ाना रोज़ाना
सावन एक महीने 'क़ैसर' आँसू जीवन भर
चाँदनी था कि ग़ज़ल था कि सबा था क्या था
तुम आ गए हो ख़ुदा का सुबूत है ये भी
शहर-ए-ग़ज़ल में धूल उड़ेगी फ़न बंजर हो जाएगा
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है
टूटे हुए ख़्वाबों की चुभन कम नहीं होती
तिरी गली में तमाशा किए ज़माना हुआ
वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था