दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएँगे ऐसा लगता है
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ज़ेहन में कौन से आसेब का डर बाँध लिया
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
घर बसा कर भी मुसाफ़िर के मुसाफ़िर ठहरे
सदियों तवील रात के ज़ानू से सर उठा
मुसाफ़िर चलते चलते थक गए मंज़िल नहीं मिलती
चाँदनी था कि ग़ज़ल था कि सबा था क्या था
ज़िंदगी ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा अब तक
मायूसी की बर्फ़ पड़ी थी लेकिन मौसम सर्द न था
बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे
रास्ता देख के चल वर्ना ये दिन ऐसे हैं
सावन एक महीने 'क़ैसर' आँसू जीवन भर
अपनी तन्हाई की पलकों को भिगो लूँ पहले