फ़न वो जुगनू है जो उड़ता है हवा में 'क़ैसर'
बंद कर लोगे जो मुट्ठी में तो मर जाएगा
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दिल बे-तब-ओ-ताब हो गया है
रास्ता देख के चल वर्ना ये दिन ऐसे हैं
मैं ज़हर पीता रहा ज़िंदगी के हाथों से
ज़िंदगी भर के लिए रूठ के जाने वाले
ये वक़्त बंद दरीचों पे लिख गया 'क़ैसर'
यूँ बड़ी देर से पैमाना लिए बैठा हूँ
आज बरसों में तो क़िस्मत से मुलाक़ात हुई
न सवाल-ए-जाम न ज़िक्र-ए-मय उसी बाँकपन से चले गए
हवा बहुत है मता-ए-सफ़र सँभाल के रख
ज़िंदगी ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा अब तक
दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है
टूटे हुए ख़्वाबों की चुभन कम नहीं होती