ये वक़्त बंद दरीचों पे लिख गया 'क़ैसर'
मैं जा रहा हूँ मिरा इंतिज़ार मत करना
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दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है
वो फूल जो मिरे दामन से हो गए मंसूब
अपनी तन्हाई की पलकों को भिगो लूँ पहले
बजते हुए घुंघरू थे उड़ती हुई तानें थीं
ज़ेहन में कौन से आसेब का डर बाँध लिया
दर-ओ-दीवार पे हिजरत के निशाँ देख आएँ
मुसाफ़िर चलते चलते थक गए मंज़िल नहीं मिलती
रास्ता देख के चल वर्ना ये दिन ऐसे हैं
मैं पिछली रात क्या जाने कहाँ था
बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे
डूबने वालो हवाओं का हुनर कैसा लगा