रास्ता देख के चल वर्ना ये दिन ऐसे हैं
गूँगे पत्थर भी सवालात करेंगे तुझ से
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सारी दुनिया के तअल्लुक़ से जो सोचा जाता
तुम से दो हर्फ़ का ख़त भी नहीं लिक्खा जाता
ज़ेहन में कौन से आसेब का डर बाँध लिया
फ़न वो जुगनू है जो उड़ता है हवा में 'क़ैसर'
बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे
जिस दिन से बने हो तुम मसीहा
सावन एक महीने 'क़ैसर' आँसू जीवन भर
घर लौट के रोएँगे माँ बाप अकेले में
दिल की आग कहाँ ले जाते जलती बुझती छोड़ चले
तुम से बिछड़े दिल को उजड़े बरसों बीत गए
ज़ख़्मों को मरहम कहता हूँ क़ातिल को मसीहा कहता हूँ
मुंतशिर ज़ेहन की सोचों को इकट्ठा कर दो