तुम से बिछड़े दिल को उजड़े बरसों बीत गए
आँखों का ये हाल है अब तक कल की बात लगे
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डूबने वालो हवाओं का हुनर कैसा लगा
मैं ज़हर पीता रहा ज़िंदगी के हाथों से
तिरी बेवफ़ाई के बाद भी मिरे दिल का प्यार नहीं गया
सावन एक महीने 'क़ैसर' आँसू जीवन भर
अपनी तन्हाई की पलकों को भिगो लूँ पहले
ज़ख़्मों को मरहम कहता हूँ क़ातिल को मसीहा कहता हूँ
काग़ज़ काग़ज़ धूल उड़ेगी फ़न बंजर हो जाएगा
मुसाफ़िर चलते चलते थक गए मंज़िल नहीं मिलती
हर शख़्स है इश्तिहार अपना
दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है
यूँ बड़ी देर से पैमाना लिए बैठा हूँ
दिन की बेदर्द थकन चेहरे पे ले कर मत जा