तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे
तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माना लगे
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न सवाल-ए-जाम न ज़िक्र-ए-मय उसी बाँकपन से चले गए
सावन एक महीने 'क़ैसर' आँसू जीवन भर
रक्खी न ज़िंदगी ने मिरी मुफ़लिसी की शर्म
कम से कम रेत से आँखें तो बचेंगी 'क़ैसर'
तुम से दो हर्फ़ का ख़त भी नहीं लिक्खा जाता
बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे
मैं ज़हर पीता रहा ज़िंदगी के हाथों से
दस्तक में कोई दर्द की ख़ुश्बू ज़रूर थी
सदियों तवील रात के ज़ानू से सर उठा
ज़ुल्फ़ घटा बन कर रह जाए आँख कँवल हो जाए
ज़िंदगी भर के लिए रूठ के जाने वाले
तुम से बिछड़े दिल को उजड़े बरसों बीत गए