दस्तक में कोई दर्द की ख़ुश्बू ज़रूर थी
दरवाज़ा खोलने के लिए घर का घर उठा
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तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
आज बरसों में तो क़िस्मत से मुलाक़ात हुई
घर बसा कर भी मुसाफ़िर के मुसाफ़िर ठहरे
सारी दुनिया के तअल्लुक़ से जो सोचा जाता
तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे
बस्ती में है वो सन्नाटा जंगल मात लगे
न सवाल-ए-जाम न ज़िक्र-ए-मय उसी बाँकपन से चले गए
तुम से दो हर्फ़ का ख़त भी नहीं लिक्खा जाता
तिरी गली में तमाशा किए ज़माना हुआ
हवा बहुत है मता-ए-सफ़र सँभाल के रख
ज़ख़्मों को मरहम कहता हूँ क़ातिल को मसीहा कहता हूँ