बस्ती में है वो सन्नाटा जंगल मात लगे
शाम ढले भी घर पहुँचूँ तो आधी रात लगे
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जिस दिन से बने हो तुम मसीहा
फ़न वो जुगनू है जो उड़ता है हवा में 'क़ैसर'
आज बरसों में तो क़िस्मत से मुलाक़ात हुई
वो फूल जो मिरे दामन से हो गए मंसूब
हवा बहुत है मता-ए-सफ़र सँभाल के रख
ज़ेहन में कौन से आसेब का डर बाँध लिया
दश्त-ए-तन्हाई में कल रात हवा कैसी थी
बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे
चाँदनी था कि ग़ज़ल था कि सबा था क्या था
ज़िंदगी ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा अब तक
घर लौट के रोएँगे माँ बाप अकेले में