आज बरसों में तो क़िस्मत से मुलाक़ात हुई
आप मुँह फेर के बैठे हैं ये क्या बात हुई
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अपनी तन्हाई की पलकों को भिगो लूँ पहले
ज़िंदगी ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा अब तक
मैं पिछली रात क्या जाने कहाँ था
हर शख़्स है इश्तिहार अपना
दानिशवरों के बस में ये रद्द-ए-अमल न था
तू अपने फूल से होंटों को राएगाँ मत कर
रक्खी न ज़िंदगी ने मिरी मुफ़लिसी की शर्म
टूटे हुए ख़्वाबों की चुभन कम नहीं होती
मुंतशिर ज़ेहन की सोचों को इकट्ठा कर दो
अहद-ए-जुनूँ में बैठे बैठे जो ग़ज़लें लिख डाली थीं
दस्तक में कोई दर्द की ख़ुश्बू ज़रूर थी