मुंतशिर ज़ेहन की सोचों को इकट्ठा कर दो
मुंतशिर ज़ेहन की सोचों को इकट्ठा कर दो
तुम जो आ जाओ तो शायद मुझे तन्हा कर दो
दर-ओ-दीवार पे पढ़ता रहूँ नौहा कल का
इस उजाले से तो बेहतर है अंधेरा कर दो
ऐ मिरे ग़म की चटानो कभी मिल कर टूटो
इस क़दर ज़ोर से चीख़ो मुझे बहरा कर दो
जा रहे हो तो मिरे ख़्वाब भी लेते जाओ
दिल उजाड़ा है तो आँखों को भी सहरा कर दो
कुछ नहीं है तो ये पिंदार-ए-जुनूँ है केसर
तुम को मिल जाए गिरेबाँ तो तमाशा कर दो
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