तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे
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ये ज़िंदगी है कि आसेब का सफ़र है मियाँ
वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था
ज़िंदगी ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा अब तक
यूँ बड़ी देर से पैमाना लिए बैठा हूँ
दश्त-ए-तन्हाई में कल रात हवा कैसी थी
मुंतशिर ज़ेहन की सोचों को इकट्ठा कर दो
जिस दिन से बने हो तुम मसीहा
दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है
तुम से दो हर्फ़ का ख़त भी नहीं लिक्खा जाता
ये वक़्त बंद दरीचों पे लिख गया 'क़ैसर'
ज़ख़्मों को मरहम कहता हूँ क़ातिल को मसीहा कहता हूँ
इस दौर की पलकों पे हैं आँसू की तरह हम