घर लौट के रोएँगे माँ बाप अकेले में
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते न थे मेले में
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ये वक़्त बंद दरीचों पे लिख गया 'क़ैसर'
जिस दिन से बने हो तुम मसीहा
डूबने वालो हवाओं का हुनर कैसा लगा
मुसाफ़िर चलते चलते थक गए मंज़िल नहीं मिलती
न सवाल-ए-जाम न ज़िक्र-ए-मय उसी बाँकपन से चले गए
वो फूल जो मिरे दामन से हो गए मंसूब
ज़ेहन में कौन से आसेब का डर बाँध लिया
काग़ज़ काग़ज़ धूल उड़ेगी फ़न बंजर हो जाएगा
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
सावन एक महीने 'क़ैसर' आँसू जीवन भर
दर-ओ-दीवार पे हिजरत के निशाँ देख आएँ
दिल बे-तब-ओ-ताब हो गया है