एक पतिंगा
तन्हा तन्हा!
शाम ढले इस फ़िक्र में था
ये तन्हाई कैसे कटेगी?
रात हुई
और शम्अ जली
मग़्मूम पतिंगा झूम उठा
हँसते हँसते रात कटेगी
सुब्ह हुई
और सब ने देखा
राख पतिंगे की उड़ उड़ कर
शम्अ को हर सू ढूँड रही थी
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सदमे झेलूँ जान पे खेलूँ उस से मुझे इंकार नहीं है
कैसे कैसे भेद छुपे हैं प्यार भरे इक़रार के पीछे
हम को तो इंतिज़ार-ए-सहर भी क़ुबूल है
हम को आपस में मोहब्बत नहीं करने देते
क्या इश्क़ था जो बाइस-ए-रुस्वाई बन गया
उम्र पोशी
ज़िक्र मिरा और तेरे लब पर याद मिरी और तेरे दिल में
अंदेशा
ब-पास-ए-दिल जिसे अपने लबों से भी छुपाया था
रक़्स करने का मिला हुक्म जो दरियाओं में
हौसला किस में है यूसुफ़ की ख़रीदारी का
लहू में डूबा हुआ मिला है वफ़ा का हर इक उसूल तुझ को