तोड़ के घुंघरू
छोड़ के महफ़िल
चुप का बरन क्यूँ पहना है
पेट पे खुजली
मुँह पर दाने
वाह तेरा क्या कहना है
क्यूँ शरमाए
क्यूँ घबराए
ये दुख हँस कर सहना है
प्यारी बेटा
यही मरज़ तो
इस पेशे का गहना है
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गुनगुनाती सी कोई रात भी आ जाती है
जो भी ग़ुंचा तिरे होंटों पे खिला करता है
अपनी ज़बाँ तो बंद है तुम ख़ुद ही सोच लो
उकताहट
सत्तरहवाँ सिंगार
मैं जब 'क़तील' अपना सब कुछ लुटा चुका हूँ
इक ऐसा वक़्त भी आता है चाँदनी शब में
दूर तक छाए थे बादल और कहीं साया न था
कैसे कैसे भेद छुपे हैं प्यार भरे इक़रार के पीछे
लम्हों का निशाना कभी होता ही नहीं
हर बे-ज़बाँ को शोला-नवा कह लिया करो
दीवाली