रूह में जिस ने ये दहशत सी मचा रक्खी है
उस की तस्वीर गुमाँ भर तो बना सकते हैं
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मैं अभी इक बूँद हूँ पहले करो दरिया मुझे
सेहर कैसा ये नई रुत ने किया धरती पर
चंद हर्फ़ों ने बहुत शोर मचा रक्खा है
तमाम रू-ए-ज़मीं पर सुकूत छाया था
हमारी तरह हुरूफ़-ए-जुनूँ के जाल में आ
फ़ानी कहाँ है हस्ती-ए-फ़ानी का शोर भी
दयार-ए-जिस्म से सहरा-ए-जाँ तक
सियाह दश्त की जानिब सफ़र दोबारा किया
साँप सा लेटा हुआ सुनसान रस्ता सामने था
हवा में जो ये एक नमनाकी है
जिस्म दीवार है दीवार में दर करना है
अजीब ख़ामुशी है ग़ुल मचाती रहती है