एक हवेली ढा कर!
तुम ने इक ऊँचा ऐवान बनाया
सारे साज फ़राहम कर के
ख़ूब सँवारा
ख़ूब सजाया
और हवेली के मलबे को!
ऐसी जगह फेंकवाया
जहाँ पर
एक गुलाब की शाख़-ए-नौ पर
एक नवेला फूल खिला था
फूल भी कैसा!
जिस से सब की रूह मोअत्तर हो जाती थी!
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सोचिए गर्मी-ए-गुफ़्तार कहाँ से आई
बूँदें पड़ी थीं छत पे कि सब लोग उठ गए
जाने किस ख़्वाब का सय्याल नशा हूँ मैं भी
इरफ़ान
टूटी हुई दीवार की तक़दीर बना हूँ
बखेड़े
मैं संगलाख़ ज़मीनों के राज़ कहता हूँ
अशआर रंग रूप से महरूम क्या हुए
क्या बात है कि बात ही दिल की अदा न हो
क्या बात थी कि जो भी सुना अन-सुना हुआ
तौसीफ़
जैसे फ़साना ख़त्म हुआ