बुतान-ए-शहर को ये ए'तिराफ़ हो कि न हो
ज़बान-ए-इश्क़ की सब गुफ़्तुगू समझते हैं
Habib Jalib
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Jaun Eliya
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तुझ पे खुल जाए कि क्या मेहर को शबनम से मिला
दर्द आलूदा-ए-दरमाँ था 'रविश'
दिल गवारा नहीं करता है शिकस्त-ए-उम्मीद
ख़ून-ए-दिल सर्फ़ कर रहा हूँ 'रविश'
पशेमाँ हैं तर्क-ए-मोहब्बत के बा'द
सवाल-ए-इश्क़ पर ता-हश्र चुप रहना पड़ा मुझ को
रब्त-ए-पिन्हाँ की सदाक़त है न मिलना तेरा
कहीं फ़साना-ए-ग़म है कहीं ख़ुशी की पुकार
उम्र-ए-अबद से ख़िज़्र को बे-ज़ार देख कर
वो निकहत-ए-गेसू फिर ऐ हम-नफ़साँ आई
अब इस से क्या ग़रज़ ये हरम है कि दैर है