अब इस से क्या ग़रज़ ये हरम है कि दैर है
बैठे हैं हम तो साया-ए-दीवार देख कर
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ख़्वाब-ए-दीदार न देखा हम ने
वो कहाँ दर्द जो दिल में तिरे महदूद रहा
हज़ार रुख़ तिरे मिलने के हैं न मिलने में
तुझ पे खुल जाए कि क्या मेहर को शबनम से मिला
उर्दू जिसे कहते हैं तहज़ीब का चश्मा है
इश्क़ की शरह-ए-मुख़्तसर के लिए
नक़ाब-ए-शब में छुप कर किस की याद आई समझते हैं
ज़हर-ए-चश्म-ए-साक़ी में कुछ अजीब मस्ती है
पशेमाँ हैं तर्क-ए-मोहब्बत के बा'द
अहद-ओ-पैमाँ कर के पैमाने के साथ
हम मय-कशों के क़दमों पर अक्सर